
पिपलिया स्टेशन (निप्र)। आज के दौर में जब खेती की लागत बढ़ती जा रही है और भूमि की उर्वरा शक्ति घटती जा रही है, ऐसे समय में किसानों के लिए पारंपरिक तरीके छोड़कर वैज्ञानिक खेती की ओर बढ़ना बेहद जरूरी हो गया है। इसी दिशा में ग्राम नंदावता में वैकल्पिक खाद कितनी लाभकारी विषय पर एक विशेष कार्यशाला का आयोजन किया गया, जिसमें देश के प्रतिष्ठित उर्वरक उत्पादक अरिहंत फॉस्फेट लिमिटेड के प्रबंध निदेशक अशोक कुमठ ने किसानों को वैज्ञानिक खेती की उपयोगिता, यूरिया-डीएपी के दुष्प्रभाव और उनके बेहतर विकल्पों की विस्तृत जानकारी दी। कुमठ ने कहा कि हमारे देश में किसान बरसों से परंपरागत तरीके से यूरिया और डीएपी खाद का उपयोग करते आ रहे हैं। यह आदत अब भी बनी हुई है, भले ही आज इन खादों की आपूर्ति में दिक्कत हो रही हो या भूमि पर उनके दुष्प्रभाव साफ नजर आ रहे हों।
यूरिया सस्ती लेकिन भूमि के लिए हानिकारक:-
कुमठ ने बताया यूरिया का अंधाधुंध उपयोग करने का कारण, उसका सस्ता होना है। सरकार की ओर से दी जा रही भारी सब्सिडी के कारण आज यूरिया की एक बोरी का मूल्य 270 ही है। यही वजह है कि किसान इसका अंधाधुंध उपयोग कर रहे हैं। लेकिन कुमठ ने चेताया कि यही ‘सस्ती खाद’ हमारी जमीन को बंजर बना रही है। यूरिया में नाइट्रोजन होता है, जो पौधों के लिए जरूरी तो है, लेकिन इसके ज्यादा उपयोग से मिट्टी में पोषक तत्वों का संतुलन बिगड़ गया है। फसलों के लिए जरूरी एन.पी.के. (नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश) का संतुलन जहाँ 4-2-1 होना चाहिए, वहीं यूरिया की अधिकता के कारण यह अनुपात अब 15-8-1 हो चुका है। इसका सीधा असर भूमि की उर्वरता और फसल की गुणवत्ता पर पड़ रहा है।
अमोनियम सल्फेट, यूरिया का बेहतर और टिकाऊ विकल्प:-
कुमठ ने किसानों को जानकारी दी कि यूरिया के स्थान पर यदि अमोनियम सल्फेट खाद का उपयोग किया जाए, तो यह अधिक लाभकारी साबित हो सकता है। इसमें 20.5 प्रतिशत नाइट्रोजन और 23 प्रतिशत सल्फर होता है। खास बात यह है कि इसमें मौजूद नाइट्रोजन अमोनिकल रूप में होती है, जो धीरे-धीरे पौधों को मिलती है। इसके विपरीत, यूरिया में मौजूद नाइट्रोजन नाइट्रेट रूप में होती है, जिसमें से 70 प्रतिशत हवा में उड़ जाता है और केवल 30 प्रतिशत ही पौधों को मिल पाता है। अमोनियम सल्फेट की खासियत यह भी है कि इसमें जो सल्फर होता है, वह पानी में पूरी तरह घुलनशील होता है। इसलिए पौधे उसे जल्दी और पूरी तरह से ग्रहण कर लेते हैं। सल्फर विशेष रूप से तिलहनी फसलों जैसे सोयाबीन और मूंगफली के लिए जरूरी है क्योंकि यह तेल निर्माण में सहायक होता है। खरीफ सीजन में इन फसलों की बुआई अधिक होती है, ऐसे में यह खाद उत्पादन को बढ़ाने में उत्प्रेरक का कार्य करता है।
डीएपी का संकट और उसके विकल्प:-
डीएपी यानी डाई-अमोनियम फास्फेट भारत में अत्यधिक उपयोग में आने वाली खाद है। इसमें 18 प्रतिशत नाइट्रोजन और 46 प्रतिशत फास्फेट होता है। लेकिन देश में इसकी खपत लगभग 100 लाख टन है, जबकि हम केवल 50 लाख टन का ही उत्पादन कर पाते हैं। बाकी आधी मांग के लिए हम विदेशों से आयात पर निर्भर हैं। फिलहाल वैश्विक स्तर पर डीएपी के दाम काफी बढ़ गए हैं, और मुख्य निर्यातक देश चीन की नीतियों के कारण भारत में इसकी आपूर्ति भी बाधित हो रही है। नतीजतन देश में डीएपी की भारी किल्लत पैदा हो गई है, जिससे किसानों को समय पर खाद नहीं मिल रही।
नेनो डीएपी, आधुनिक, असरदार और किफायती विकल्प:-
डीएपी की जगह कुमठ ने नेनो डीएपी को एक क्रांतिकारी और व्यवहारिक विकल्प बताया। यह तरल खाद भारत सरकार द्वारा प्रमाणित है और इसकी एक बोतल लगभग 550 रुपए में उपलब्ध है। जबकि पारंपरिक डीएपी की एक बोरी की कीमत 1350 रुपए तक पहुंच चुकी है। नेनो डीएपी की थोड़ी मात्रा में ही डीएपी जितना असर होता है, जिससे किसान को कम खर्च में अधिक लाभ मिलता है।
अन्य वैकल्पिक खादें जो डीएपी का स्थान ले सकती हैं:-
कुमठ ने किसानों को सुझाव दिया कि वे डीएपी की जगह टीएसपी (ट्रिपल सुपर फास्फेट) का उपयोग करें, जिसमें 46 प्रतिशत फास्फेट होता है, जो डीएपी के बराबर है। इसके अलावा सिंगल सुपर फास्फेट एक स्वदेशी खाद है, जो देश में आसानी से उपलब्ध है और काफी लोकप्रिय भी है। एन.पी.के. आधारित मिश्रित खादें जैसे 20-20-0-13, 12-32-16, और 16-16-16 भी अच्छे विकल्प हैं, जो संतुलित पोषण देने के साथ-साथ फसल की गुणवत्ता और उत्पादन में वृद्धि करते हैं।
मिट्टी परीक्षण, खेती की पहली और जरूरी शर्त:-
कुमठ ने किसानों से अनुरोध किया कि वे बिना मिट्टी परीक्षण के अंधाधुंध खाद का उपयोग न करें। प्रत्येक खेत की मिट्टी की अपनी अलग ज़रूरत होती है, और उसी के अनुसार खाद का चयन करना चाहिए। यह प्रक्रिया न केवल लागत को कम करेगी, बल्कि भूमि की उर्वरा शक्ति को भी बनाए रखेगी।
सरकार पर सब्सिडी का बोझ और किसानों की भूमिका:-
उन्होंने यह भी बताया कि वर्तमान में सरकार करीब 2 लाख करोड़ की सब्सिडी खादों पर दे रही है। यदि किसान वैज्ञानिक तरीके से खादों का चयन करें और वैकल्पिक खादों की ओर बढ़ें, तो यह बोझ कम हो सकता है और सरकार अन्य योजनाओं में ज्यादा निवेश कर सकेगी।
बदलाव की जरूरत अब नहीं तो कब ?:-
कार्यशाला के अंत में कुमठ ने दो टूक कहा अब समय आ गया है कि हम परंपरागत आदतों से बाहर निकलें और वैज्ञानिक सोच अपनाएं। यूरिया और डीएपी के पीछे भागने के बजाय मिट्टी की जरूरत के अनुसार वैकल्पिक खादों का उपयोग करें। इससे आपकी खेती की लागत घटेगी, उत्पादन बढ़ेगा और भूमि भी लंबे समय तक उपजाऊ बनी रहेगी। यही सच्ची ‘आत्मनिर्भर खेती’ की दिशा है।
——-